Sunday, November 27, 2011

"मैं" अहेम या बगावत...

जल रहा हूँ अंगारों सा क्यूँ मैं, सांस लेना भी दुश्वार है,
जलकर राख भी नहीं होता यह जिस्म, जाने क्यूँ जीने की प्यास है,
अरमानों का क़त्ल रोज़ करता हूँ, तिल-तिल करके रोज़ मरता हूँ,
फिर भी ज़िन्दगी क्यूँ, यूँ मुझ पर मेहरबान है,
हर दम, एक अजब सी आग, जो घुटन बनने लगी है साँसों में,
मैं जानता हूँ, गल रहा है मेरा अहेम, फिर भी अहंकार की प्यास है,
झुंझलाहट, चिल्लाहट, जो दबी पड़ी थी, मेरे खून के कतरों में,
क्यूँ उबाल सी बन, बरसने लगी है मेरे लफ़्ज़ों में कहीं,
जुल्म और सितम, अब क्यूँ गवारा नहीं,
झूठ के बिना, क्यूँ सभी बेसहारा यहीं,
अरमानों का क़त्ल रोज़ करता हूँ, तिल-तिल कर रोज़ मरता हूँ,
फिर भी ज़िन्दगी क्यूँ, यूँ मुझ पर मेहरबान है,
जल रहा हूँ अंगारों सा, क्यूँ सांस लेना भी दुश्वार है,
जलकर राख भी नहीं होता जिस्म, जाने क्यूँ इसे जीने की प्यास है...

एक आग की तपिश सी महसूस होती है अन्दर, जो उबाल बन रगों में दौड़ने लगी है परन्तु मैं यह नहीं जानता की यह आग अहेम की है या बगावत की ? जानता हूँ इस आग से गलने लगा है मेरा शरीर परन्तु फिर भी इसे संभाले हुए चल रहा हूँ और अपने ही अहेम में कहीं जल रहा हूँ ।

खुद अपने ही लफ्ज़ अजनबी से लगने लगते है, तो कभी मेरे अन्दर गलते-मरते "मैं" को सहारा देते है परन्तु मैं यह नहीं जानता की यह सही है या गलत । हम इस छोटी सी ज़िन्दगी में कई किरदार निभाते है परन्तु अपने कर्त्तव्य को निभाते-निभाते हम अपने अन्दर के "मैं" को भूल जाते है । पर वो नहीं भूलता, वो पलता रहता है अन्दर-अन्दर, जलता रहता है और एक दिन खुद अपने आप को भस्म कर लेता है, अंत कर देता है खुद की ही वक्तित्व का या फिर कभी रौद्र रूप धारण कर सृष्टि-संघार कर देता है । 

तो जानिये अपने अन्दर के उन्ही सवालों को और पूछिए खुद से सवाल की क्या आप अपने लिए जी रहे है? उठाइए उन सवालों का पुलिंदा और खोजिये अपने "मैं" को!!!

Monday, November 21, 2011

रिश्तों की कच्ची डोर...

रिश्ता शब्द अपने आप में पूरी परिभाषा लिए हुए है परन्तु रिश्तों की अहेम पहचान उन कच्चे पलों में होती है जब इंसान को अपने सगे-साथियों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है | अपितु, वही एक पल ऐसा भी होता है जिसमे आपको अच्छे और बुरे दोनों रिश्तों की पहचान हो जाती है | हालांकि, रिश्ते परिभाषा से नहीं, विश्वास से बनते है, कहने को रिश्तों की परिभाषा विश्वास के कच्चे धागे से शुरू हो एक अनचाहे प्रेमसंबंध पर ख़त्म होती है जिसको लफ़्ज़ों में बयान करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है |

मुझे याद है, रिश्तों की परख सीखते हुए मुझे एक अनजाने शख्स ने यह सीख दी कि रिश्ते रेत की तरह होते है उन्हें मुठ्ठी में जितना कसकर बाँधने की कोशिश करोगे वो उतनी ही तेज़ी से हाँथ से फिसलते चले जायेंगे और एक वक़्त ऐसा भी आएगा की आपके हाँथ में अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा | हालांकि बाद में उनके दिए कटु-अनुभवों से मैंने सीखा की रिश्तों की सही पहचान कैसे की जाए |


आप सोच रहे होंगे की आज मैं अचानक रिश्तों की बात लेकर कैसे बैठ गया, वो कहते है न चोट लगने पर ही दर्द का सही एहसास होता है | हम सभी की ज़िन्दगी में कभी न कभी रिश्तों की परीक्षा की घड़ी जरूर आती है और जब सदियों पुराने रिश्ते टूटते है तो मन आप-व्यथा बताने की स्तिथि में नहीं होता, किसी अपने को खो देने वाले दर्द का ज्वर दिल में चढ़ता-उतरता रहता है और इसी मनोस्तिथि में हम रिश्तों की उन मीठी बातों को भोल जाते है जो शायद मेरे हिसाब से सबसे अहेम होती है क्यूंकि दुःख के पल तो रो कर भुलाए जा सकते है परन्तु ख़ुशी के पलों में हँसी को भूल जाना बेवकूफी है |


पर अहेम सवाल यह है कि रिश्तों में दरार क्यूँ आती है ?
हम अपने अहम्, ईर्ष्या और द्वेष की भावनाओं में बहते हुए यह भूल जाते है कि इस रिश्ते के न होने से ज़िन्दगी में कैसा बदलाव आएगा | हम विष-वचन तो याद रख लेते है परन्तु उन मधु-वचनों को भूल जाते है जो कभी उस अनजाने रिश्ते की जान थे, पहचान थे | और शायद इसी मनोस्तिथि में पड़ कर हम उन रिश्तों का त्याग कर देते है जो कभी ज़िन्दगी हुआ करते थे, उन रिश्तों को भूल जाते है जिसमे कभी सारी दुनिया समां जाती थी, उन रिश्तों को महसूस करना छोड़ देते है जो कभी धडकनों की तरह सुनाई देते थे |

तो उठिए और फिर से उन रिश्तों की टूटती डोर को थाम लीजिये जो जाने अनजाने में धीरे-धीरे हाँथ से छूटती जा रही है, बताएये उन रिश्तों को अपने दिल की परिभाषा जो सच में दिल को अजीज़ है और महसूस कीजिये एक स्वछंद नयापन अपने रिश्तों में...

Tuesday, November 15, 2011

कलम व्यथा...

कलम उठा यूँ लिखने बैठा, जाने किस-किस सोच में,
क्या लिखूं, क्या न लिखूं, के ताने-बाने में बुन कर रह गया,
हाल-इ-हसरत, कलम-इ-जुर्रत, लफ़्ज़ों में क्यूँ घुल गया,
क्या लिखूं, क्या न लिखूं, के ताने-बाने में बुन कर रह गया...

लफ़्ज़ों की दुनिया बहुत ही अजीब होती है, एक छोटी सी पंगति से राजा को रंक और रंक को राजा बना देती है | आज दुनिया ने कलम की शक्ति को तो पहचाना है परन्तु हम कभी-कभी उसके दुष्परिणामों को भूल जाते है | अपितु, लिखने के अभ्यास से यह तो साफ़ है कि आपके पास दिन प्रतिदिन शब्दों का शब्दकोष बढ़ता जाता है और साथ ही साथ बोलने और लिखने कि कला में भी निखार होता है |

आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक मैं लिखने के मर्म को लेकर क्यूँ बैठ गया | हुआ यूँ, कि कुछ दिनों पहले अपने अहम् पर प्रश्नचिन्ह लगाते कुछ सवाल मेरे सामने आ खड़े हुए और यह सत्य है कि जब इंसान के अहम् के ऊपर बात आती है तभी मनोस्तिथि में सजगता भी आती है | खैर, सवाल था कि लिखने से किसी को क्या मिलता है ? मेरे लिए यह सवाल बड़ा ही रोचक था क्यूंकि इस प्रश्न का उत्तर तो मैं खुद भी खोज रहा था और रहा हूँ, हालांकि अभी भी कुछ यथाचित उत्तर तो नहीं है मेरे पास परन्तु एक अनायास ख़ुशी है जो शायद मुझे लिखने के बाद आती है | इस स्तिथि का आभास होते ही मैंने अचानक मिलने वाली खुशियों का कारण खोजना शुरू कर दिया और एक रात अचानक ही ख़ुशी का एक अजीब एहसास हुआ | यह एहसास अछूता नहीं था मुझसे क्यूंकि यह मेरा अपना एहसास था जो मुझे शायद लिखने पर मिलता है | वो कहते है न:


लिखत-लिखत कलम घिसे, गहरी होत दवात,
मन तरसे नए शब्दों को, बुझे न लिखन की प्यास,
कह अभिनव, नव-नूतन बनके, लिख दो दिल की आस,
मन तरसे नए शब्दों को, बुझे न लिखन की प्यास...

इंसान ख़ुशी के लिए ही इतनी जद्दोजहत करता है, अगर ख़ुशी का कोई ठिकाना ही न हो तो इंसान के परिश्रम का क्या फ़ायदा और मेरे हिसाब से कार्य वही करना चाहिए जिसमे ख़ुशी मिले | तो, मैंने तो अपनी ख़ुशी का स्त्रोत खोज लिया, आप क्या सोच रहे है... 

Monday, August 15, 2011

एक सोच...

सोच ! शायद इसकी शुरुआत उस मनोस्तिथि से होती है जिसमे आपके ज़ेहन में ख्यालों के काफिले तो चल रहे होते है अपितु उन्हें रोक और पूछ पाना बहुत ही मुश्किल होता है | ख्यालों के सिलसिले-ब-सिलसिले चलते हुए एक सोच पर अटक कर रह जाते है, एक अच्छी सोच !!! सोच का कोई दाएरा, कोई सीमा नहीं होती अपितु सोच तो बस बहती हवा की तरह होती है, स्वछंद एवं स्वतंत्र | 

सोच कभी बुरी नहीं होती यद्दपि सोचने वाला दिल या दिमाग अच्छा या बुरा होता है | हम किसी व्यक्ति-वेशेष को उसकी अच्छी या बुरी सोच के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते अपितु यह उसकी अच्छी और बुरी परिस्तिथियों पर निर्भर करता है | ख़्वाबों के पुलिंदे ख्यालों में बदल एक सोच का रूप ले लेते है, दिल में कुछ ख्यालों को ले कर धारणा बन जाती है और दिल न चाहते हुए भी उन सब ख्यालों का साथ देने लगता है जोकि मुमकिन ही नहीं है | भई ! कल्पना-शक्ति की उड़ान ही कुछ ऐसी होती है जो हर किसी की चाहतों को पर लगा देती है, बादलों ऊंची छलांगे और कल्पनाओ के पुल हमारी सोच को उस यथाशक्ति से दूर ले जाते है और हमारे होसलों को ऊंची उड़ान देते है यद्दपि हम वही होते है समाज की सांसारिक सोच और रूढ़ीवादिता में अटके बेबस और लाचार पर जो होसलों के परिंदे स्वछन्द गगन में उड़ रहे होते है उन्हें रोक पाना बा-मुश्किल होता है |

आप यह सोच रहे होंगे कि आज यह सोच की बात कहाँ से आ गयी ? सोच और ख़्वाब कभी रास्ता पूछ नहीं आते, यह तो बस दिल को धीरे से छू, सपनों को ऊंची उड़ान दे जाते है और अगर शायद हम दिल की बातों पर कुछ अमल करे तो शायद उन हसीन सपनों को पंख दे सकते है जो दिल में कहीं कोनो में दबे पड़े है |

तो निकलिए अपनी सोच के दाएरे से बाहर, अपने सपनों के पंखो को आसमान दीजिये और उड़ चलिए अपनी कल्पना और सोच की नयी दुनिया में जहाँ सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश की जाती है | हर एक नयी सोच एक अच्छे आज और बेहतर कल को जन्म दे सकती है, परिवर्तन कर सकती है, आधार दे सकती है | तो आज सोचिये अपने बारे में, एक नयी सोच के साथ....

Thursday, July 28, 2011

आस्था, धर्म या अंधी भेड़चाल ???

आस्तिक और नास्तिक में बस एक धूमिल रेखा का ही फर्क होता है और वही एक रेखा इस पूरे संसार को दो भागो में बाटे हुए है | हालाकि आस्था का पलड़ा हमेशा से ही भारी रहा है है अपितु भौतिक सोच ने भी दुनिया का देखने का नजरिया बदला है | हम आस्तिक है इसके प्रमाण के लिए हम न जाने क्या-क्या करते है परन्तु हम भूल जाते है की आस्था श्रद्धा और निष्ठा से प्रतीक होती है न की दिखावे से | मंदिरों में बढ़ती भीड़ और चढ़ावा इस बात का प्रमाण है कि हम श्रद्धा में नहीं भेड़चाल में भागे चले जा रहे है | अगर हम पिछले कुछ दिनों के अख़बारों के पाने छाने तो इसके प्रतक्ष प्रमाण हमारे सामने है | मंदिरों में छुपे खजाने और बाबाओ के पास से मिलती धन-कुबेर राशियाँ, उस अंधी भेड़चाल का सबूत देती है जिसके चलते मंदिरों तक आस्था के व्यवसाय चलने लगे है | पंडितों, संतो और महान्तो की बढ़ती संपत्ति के बीच हम उन सुवर्ण-युगी संतो को भूलते जा रहे है जो दान-दक्षिणा पर जिया करते थे |

अभी हाल में ही मुझे गोवर्धन-पर्वत यात्रा का अवसर मिला | यह मेरा पहला अवसर था जिसमे मैं २१ किलोमीटर की अदभुत यात्रा पर पदल ही चल पड़ा हालाकि यह एक अनूठा एवम अदभुत अनुभव था परन्तु उसमे भी मुझे धर्म के नाम पर भागती अंधी भीड़ दिखाई देने लगी | लोगों की श्रद्धा लगता है ख़त्म सी हो गयी है, मानो श्रद्धा का सीधा संबंध शाररिक, मानसिक और व्यावसायिक संतुष्टि से ही रह गया है | पंडितों और महान्तो की भी श्रद्धा, आराधना व्यवसाय का रूप लेने लगी है | अब तो मंदिरों में तिलाकभिशेक भी १० रुपए के चढ़ावे के बाद होने लगे है और यदि आप दान-दक्षिणा नहीं करते है तो आप मोक्ष की भागीदार नहीं है...क्या हम इसी धर्म और कर्म-काण्ड की गुहार लगते फिरते है ? क्या यही हमारी आस्था रह गयी है या फिर हम भी उस भेड़चाल के मारे हो गए है ?

मैं यह नहीं कहता कि हम सभी इस अंधी भेड़चाल के शिकार है परन्तु हम में से अधिकतर लोग इसी झूटी श्रद्धा की तरफ क्रमबद्ध हो गए है | ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा और दान-दक्षिणा आज-कल का फैशन बन गया है, लोग बस झूटी शान के लिए भागे जा रहे है और उस पत्थर रुपी भगवन में बसी आस्था को भूले जा रहे है जोकि वास्विकता में होनी चाहिए | मंदिरों में भी धीरे-धीरे आस्था और श्रद्धा का व्यवसाय बढ़ता चला जा रहा है और शायद कुछ समय पशचात सिर्फ ढोंग और दिखावा ही रह जायेगा |

तो अपनी आस्था का सौदा ऐसे न होने दे, आस्था और ढोंग के बीच के फर्क को पहचाने और दिखावे से बचे | उन कर्म-कांडों से बचे जो हम अब तक खुद की जिद्द से या फिर किसी के दबाव में करते आ रहे है | भगवन यह नहीं कहते कि मुझे रोज़ पूजो अपितु जब भी पूजो बस दिल से पूजो | तो चलिए, अपनी सच्ची श्रद्धा की ओर न की ढोंग की ओर... |

Tuesday, June 21, 2011

अंतर्द्वंद...

अंतर्द्वंद...एक ऐसी परिस्थिति और कमोपेश है जिसमे हम उन कड़वे सच का सामना करते है जिसे हम जानते हुए भी आँख मूँद लेते है | अंतर्द्वंद की परिभाषा कुछ भी हो सकती है परन्तु यह सत्य है कि एक पसोपेश सा बना रहता है खुद के सवालों और जवाबों के बीच में, एक असमंजस बना रहता है अर्थ और निरर्थ के बीच, उन सवालों के बीच जिसका उत्तर जानते हुए भी हम सुनना या मानना नहीं चाहते है | अंतर्द्वंद की स्थिति बिलकुल उस समकालीन युद्ध की तरह होती है जिसमे दोनों तरफ से ज़ख्म खुद को ही मिलने होते है | 

अंतर्द्वंद की परिस्थिति तब बनती है जब हमारे ज़ेहन में अनसुलझे सवालों का पुलिंदा बन जाता है, उन सच्चाईयों को दिल मानने पर मजबूर हो जाता है जिसे वो मानना नहीं चाहता | अंतर्द्वंद की कोई परिभाषा नहीं होती, अगर होती तो शायद उसे बताने के मुझे ज्यादा आसानी होती | उस विषय को कैसे समझाया जाए जो खुद में एक अनसुलझा सवाल है | एक गहन चिंतन की परिस्थिति बनी रहती है, दिल में बहुत सारे सवाल उठते है परन्तु उनके जवाब देने के लिए कोई पास नहीं होता | एक कशमकश सा बना रहता है, दिल के अन्दर न जाने कितनी आवाज़े बनती और बिगड़ती रहती है, दिल खुद से ही सवाल पूछता रहता है और जवाब जानते हुए भी दिल उसे मानना नहीं चाहता | 

मैं इस अंतर्द्वंद की परिस्थिति में खुद के सवालों के जवाब ढूँढता हूँ, कई अनसुलझे पहलुओ को सुलझाने की कोशिश करता हूँ | इस स्थिति में वेग और आवेश काम नहीं करते क्यूंकि अंतर्द्वंद की स्थिति उन्ही लोगों की यादों के लेकर उत्पन्न होती है जिन्हें हम खोना नहीं चाहते, उन्ही यादों के लिए एक प्रश्नोत्तर की क्रमवावली बनाती है जो दूरियों में दूर हो गए है परन्तु दिल के आज भी नज़दीक है | मुझे ऐसी परिस्थिति में उन लम्हों से रूबरू होने का मौका मिलता है जिन्हें मैं भूलता जा रहा हूँ, उन यादों से हमसफ़र होने का ज़रिया मिलता है जिन्हें कहीं पीछे राहों में छोड़ चला हूँ, उन रिश्तों के मुलाकात का मौका मिलता है जो आज भी दिल के उतने ही अजीज़ है जितने वो कल थे | 

तो चाहिए! समझिये अपने अन्दर चलते उस अंतर्द्वंद को जिसके बीच में आप उन रिश्ते, यादों, लम्हों को खोता देख रहे है जिन्हें आप खोना नहीं चाहते और बढ़िये उस हसीन सुख की ओर जिसे आप कहीं पीछे छोड़ चले है उन अधूरी यादों की तरह जो दिल-अजीज़ है |

सधन्यवाद!!!

Tuesday, June 14, 2011

ऑटो नंबर - DL-1RK 3157

दिल्ली दिलवालों की!!
भारत के कोनो-कोनो से आ कर बसाने वाले लोगो से मिलकर बनी ये दिल्ली सभी का खुले दिल से स्वागत करती है | यहाँ रहनेवाला कहीं उत्तर प्रदेश से तो फिर कहीं बिहार से, कहीं केरल से है तो कहीं सिक्किम या नागालैंड से और यह सभी लोग मिलकर बनाते है "दिल्ली" | देश की राजधानी होने के साथ-साथ, राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र दिल्ली फिर भी दिल्ली ही है | पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में, पंजाबी तड़के की खुशबूं के बीच महकती दिल्ली | दिल्ली की धड़कन मेट्रो और लो-फ्लोर बसों के बीच बसी दिल्ली अपने ही रंग का जलवा बिखेरती रहती है | देश का केंद्र होने के नाते चर्चाओ और सुर्ख़ियों में बसी दिल्ली सभी के लिए एक सी रहती है और इन्ही में कहीं बसे हुए है दिल्ली के ऑटो वाले | 

दिल्ली की आधी जान संभाले यह ऑटो वाले, दिल्ली के इस कोने से उस कोनो तक लोगो की अवाह्जाही का साधन तो बनते है परन्तु कभी-कभी अपनी कुटिल व कपिट व्यवहार से लोगों की परेशानी का सबब भी बन जाते है | सवारियों से जबरन पैसे ऐठना या मीटर से न चलना तो माने उनका जन्मसिद्ध अधिकार है परन्तु इस मनमानी में राहगीरों को जो नुक्सान पहुंचा देते है, उसका मुझे बड़ा दुःख होता है यदपि मुझसे कभी किसी ऑटो वाले ने बेमानी नहीं की पर फिर भी हर रोज़ एक नयी घटना सुनने को मिल ही जाती है | हालाकि सभी ऑटो वाले गलत नहीं होते, उसी तरह जैसे एक तालाब की सारी मछलिया गन्दी नहीं होती परन्तु कुछ गन्दी मछलियों की वजह से बाकी मछलियों को भी गंदिगी का शिकार होना पड़ता है और ऐसी ही गन्दी मछलियों के बीच में से कुछ अच्छी मछलियाँ इस कोशिश में लगी रहती है कि यह गन्दी से भरा तालाब थोडा साफ़ हो जाये | ऐसे ही मछलियों में से एक मछली से आज मेरी मुलाकात हुई |

बस की प्रतीक्षा में खड़े, गर्मी और लू के थपेड़ों को सहते हुए मैं और मेरे मित्र ने एक ऑटो वाले को हाँथ दिया | उस अधेड़ उम्र के ऑटो ड्राईवर ने मीटर डाउन करते हुए पुछा "कहाँ जायेंगे साहब?", अपने कार्यालय का पता बताते हुए न जाने क्यूँ मैंने उनसे गुफ्तगू शुरू कर दी | वो कहते है न शब्दों के तो पर लगे होते है और बातें तो बातों में से निकलती चली जाती है | इस आधे घंटे के छोटे से सफ़र में बातों के पड़ाव दर पड़ाव चलते रहे और उसी दोरान मुझे कुछ पलों के लिए ऑटो वालों की ज़िन्दगी से रूबरू होने का मौका मिला | 

लगभग 40 - 45 के अशोक सिंह जी ऑटो चलने के साथ-साथ 3 बच्चों के पिता है | ऑटो-चालक होने के बावजूद उन्होंने अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और ईमानदारी का ज्ञान दिया है | अपने बच्चों को MBA और शिक्षिका के पद पर देख शायद वह फूले नहीं समाते होंगे और जाने-अनजाने उन्होंने मुझे भी ईमानदारी का पाठ पढ़ाया | उनके पुराने किस्सों में कई बार अपने ईमानदारी का विवरण दिया | आज सुबह के ही एक ताज़े किस्से में उन्होंने एक सवारी को ईमानदारी का ज्ञान देते हुए कहा की "मैडम जी, अगर मैं यह पैसे रख भी लूँगा तो यह पैसे मुझे पचेंगे नहीं, कहीं न कहीं यह बेमानी का पैसा निकल ही जायेगा" | यदपि अगर वो चाहते तो वो 400 रुपये रख सकते थे और उस औरत (सवारी) को दिए बिना ही जा सकते थे परन्तु फिर भी उन्होंने उससे उसके हिसाब के पैसे वापस कर मुझे उस ज्ञान का पाठ कराया जिससे शायद मैं भूलता जा रहा था अपितु आज के इस मतलबखोर वक़्त में हम ईमानदारी का पाठ भूलते जा रहे है और कभी-कभी तो बेमानी करने में भी गुरेज़ नहीं करते |

मैं अशोक जी जैसे उन तमाम लोगों को शुक्रगुज़ार हूँ जो जाने-अनजाने में मुझे उस अगूड़ ज्ञान से भरे सागर में ले जाते है और मुझे रूबरू होने देते है उन जाने-पहचाने सच से जो मैं शायद वक़्त की इस तेज़ रफ़्तार में भूलता जा रहा हूँ, उस ज्ञान का पाठ कराते है जिससे जानते-पहचानते भी मैं अनदेखा कर देता हूँ और उनकी इन्ही वजह और कोशिशों से मुझे कुछ और लफ़्ज़ों से खेलने का मौका मिल जाता है जिसके लिए तह-दिल से शुक्रिया |

सधन्यवाद !!!

Monday, June 13, 2011

प्रेम, प्यार, स्नेह...क्यूँ कुछ शब्द अधूरे से !!

आज के इस क्रियाकाल्पिक युग में लोग मानो अंधे से होते जा रहे है | सभी एक अंधी भेड़-चाल में नाक की सीध में किसी अनजाने सुख के पीछे भागे चले जा रहे है | ऐसा लगता है मानो वो वो नहीं कोई और बन कर जी रहे हो परन्तु सत्य तो यह है कि इस आधुनिकरण युग में इंसान भी मशीन की तरह ही होता चला जा रहा है | उसके अंदर का सारा प्यार, स्नेह, प्रेम, मोहोब्बत सब मरते से चले जा रहे है | मुझे कभी-कभी लगता है कि क्या इंसान सच में अपनी ज़िन्दगी से निराश और हताश है या फिर उसके अन्दर का वो मोम-मानव मर गया है जो कभी उसके दिल में जिंदा हुआ करता था? मैंने यह जानने के लिए कई चेहरों का अध्धयन किया जो कि आज कल मुझे बेहद प्रिय सा कार्य लगने लगा है | लोगो के चेहरों के अध्धयन से मुझे अपने अन्दर आकस्मित आने वाली त्रुटियों का एहसास होने लगा जिसका शायद मैं सुधार कर सकता हूँ | मुझे लोगो के चेहरों पर चढ़े झूठे नकाबों को पढ़ने की कला मिली जिससे मैंने तो छल-कपट से बचना सीख लिया परन्तु अभी भी लगता है कि यह ज्ञान अधूरा है | 

ख़ैर छोड़िये! आज लोगो के दिलों में फासले बढ़ने लगे है, हर रिश्ता धीरे-धीरे नापाक सा होता जा रहा है | कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मानो कृष्ण के मुखारविंद से निकली गीता के शब्द मानो सत्य में परिवर्तित होते जा रहे हो, "तुम अकेले ही आये थे और अकेले ही जाओगे" परन्तु लोगो ने शायद इससे गलत चरितार्थ कर लिया है | हर रिश्ता धीरे-धीरे बेजान होता जा रहा है, लोगो में प्यार और स्नेह कम होता जा रहा है | हर रिश्ते में खटास पड़ती जा रही है और कोई भी आगे बढ़ इस बढ़ती खायी को पाटने की कोशिश नहीं करता क्यूंकि अहम् आत्मसम्मान की जगह ले लेता है और फिर धीरे-धीरे रिश्तों के कच्चे धागे टूटने लगते है | 

"बद से बदतर होता जा रहा इंसान, अपना अक्स खोता जा रहा इंसान,
जुर्म और खून से सराबोर होती जा रही, एक-एक रग,
जुर्म और काल की, काली कूप में बढते उसके पग,
न माँ, न बाप, न बहन, न भाई अपना,
बस पैसे की भूख, और खून का सपना जीता जा रहा इंसान,
हर रिश्ते को शर्म-सार करता जा रहा इंसान,
बुराई के पथ पर बढता जा रहा इंसान...

देख इस दुर्दशा को, दिल मेरा भी जोर रोया,
पर सुधार की गुंजाईश न देख, दर्द अपना दिल में खोया,
बन के पथिक, भटकता रहा दर-ब-दर,
मातम भी न मना सका, ऐसे ये बे-जोर रोया..."

यह कुछ अधूरी पंग्तिया शायद उस अगूड़ सत्य को बयान करती है जो शायद धीरे-धीरे लोभ और लालच में डूबा इंसान भूलता जा रहा है | हर रोज़ एक नयी खबर में एक नए रिश्ते को नापाक होते देखने के आदि हो गए है हम, कहीं भाई भाई के खून का प्यासा है तो कहीं बहन भाई की हवास का शिकार हो रही है, कोई माँ अपने बच्चो को बेच दे रही है तो कहीं बाप बेटी का गला दबाने को तैयार है | ऐसा लगता है कि मानो कोई किसी का सगा है ही नहीं दुनिया में, सब बस अपने लोभ और लालच कि हवास को अग्नि दिए जा रहे है | कभी-कभी तो मुझे अपने मनुष्य होने पर भी घिन्न आने लगती है | क्या सोचा होगा उसने तराशते वक़्त कि आगे चल कर उसका यह नायाब करिश्मा अपने ही रिश्तो को शर्मसार करेगा? क्या अपने ही रिश्तों से खून कि होलिया खेलेगा?

मेरे लफ़्ज़ों में शायद चुभन होगी या फिर मेरा ज़मीर अभी भी जिंदा है स्नेह और अपनेपन के साथ जो आज भी मुझे लोगो से बड़े स्नेह और आत्मीयता से मिलाता है जैसे मानो मेरे अपने ही हो क्यूंकि मैंने यह सीखा है कि द्वेष दिल में रखने से ज़हर ही बनता है, अमृत नहीं | तो चलिए, उठिए और दोनों हाँथ फैला कर खुले दिल से हर उस शक्श का स्वागत कीजिये जो भी आपके आस-पास है | उठिए और सबकी जिंदगी में भर दीजिये स्नेह, प्यार और अपनेपन का रंग और फिर देखिये ज़िन्दगी कितनी हसीन है |  

धन्यवाद!!!

Monday, June 6, 2011

भ्रष्टाचार के लिए यह शिष्टाचार क्यूँ...?

हम सभी भ्रष्ट है परन्तु फिर भी हम चाहते है कि भारत भ्रष्टाचार मुक्त हो | कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि मानो इस देश में बिना भ्रष्टाचार के एक दिन गुज़ार पाना भी मुश्किल होगा | हर तरफ घूसखोरी, जालसाजी और भ्रष्टाचार फैला हुआ है और हम निठल्लो की तरह हाँथ पर हाँथ रख बैठे इस भ्रष्टाचार को बढ़ते देख रहे है | हम बस लोगो की आवाज़ में आवाज़ मिला सकते है परन्तु अकेले शुरुआत करने में हम डरपोक बन जाते है | मैं सिर्फ आपकी बात नहीं कर रहा, हम सभी की बात कर रहा हूँ क्यूंकि कहीं न कहीं हम ही जिम्मेदार है इस भ्रष्टाचार को बढ़ाने में | तो अगर आज हमारे नेताओ का कला धन स्विस बैंक में जमा है तो फिर क्यूँ हम भ्रष्टाचार की बात करते है? फिर क्यूँ हम एक दुसरे को चोर-लुटेरे बोलते रहते है? क्यूँ हम अपने जुर्म दूसरों के सिर मढ़ते रहते है? 

हर सुबह के अखबार में एक नए "अनशन" की बात होती है, कभी किसी गली, गाँव, कसबे, नगर, जिले में तो कभी बड़े शहरों में तो कभी हर गली, कोने, नुक्कड़ पर अनशन की बाते हो रही होती है | कभी-कभी तो मुझे लगता है कि इस देश का नाम भारत से "अनशन-इंडिया" कर देना चाहिए ताकि बाहर वाले भी जाने कि हम भी चर्चो में है |

अन्ना हजारे के अनशन के बाद, बाबा रामदेव ने इसकी बागडोर थाम ली और अपने चेले-चपाटों (भक्तगण) के साथ अनशन पर बैठ गए | उनके कड़े प्रयास के बाद भी उन्हें उठा कर हरिद्वार भेज दिया परन्तु इस साहसिक (सोनिया गाँधी सरकार कि आवाज़ में) कार्य के चक्कर में हज़ारों भक्तजनों को भुगतान करना पड़ा | यह सरकारी मुलाज़िमो को इस लिए भी करना पड़ा ताकि उनकी गद्दी बची रहे क्यूंकि कहीं न कहीं उनके मन में डर था कि कहीं बाबा भी अन्ना हजारे की तरह कुछ न कर जाये | कहीं अन्ना की तरह कुछ बेकार की मांगे न रख दे और इस बार तो मुद्दा भी कड़ा है और जनता भी |

सवाल था बाबा से कैसे निपटा जाये? और सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया कि सब कुछ छिन-भिन हो गया | धारा 144 के तहत पुलिस ने बाबा का समर्थन करने वाले लोगो की जमकर तुड़ाई की, भीड़ को काबू करने के लिए आंसू गैस के गोलों का इस्तेमाल से भी पुलिस पीछे नहीं हटी और बाबा को मुह छुपा कर हरिद्वार भागना पड़ा | परन्तु, क्या ऐसा करने से भ्रष्टाचार का यह मुद्दा थम जायेगा? क्या जनता उस सच से अछूती रह जाएगी जो स्विस बैंको में जमा है? या फिर उस सच से अछूती रह जाएगी कि हम सब भ्रष्टाचार में यहाँ तक लिप्त हो चुके है कि एक वक़्त आने पर हम अपने आप को भ्रष्टाचार कि आग में भस्म कर लेंगे? 

ख़ैर छोड़िये, हम सब जानते है कि हम कितने पानी में है और मैं यह भी मानता हूँ कि इस भ्रष्टाचार का अंत होने में एक लम्बा अरसा लगेगा परन्तु हमे हार नहीं माननी चाहिए | मैं अभी भी एक अच्छे-सच्चे भारत को कहीं दूर कोनो में देख सकता हूँ और उम्मीद भी करता हूँ कि एक दिन वही सचाई का सूर्य उदय होगा बिना भ्रष्टाचार के... | 

सधन्यवाद !!! 

Thursday, June 2, 2011

क्या कुछ नया लिखूं...???

हलकी धुप की सुबह के साथ, दिल में बस यही ख्याल उठता है कि क्या कुछ नया लिखूं जो सबके दिलो को छू जाये | क्या ऐसी बात कहूँ जो सबके दिलों पर असर कर जाये | कभी दिल शायरी के ख्याल से भर जाता है तो कभी किसी सांसारिक मुद्दे पर दिल खुद से बहस करने लगता है परन्तु हमेशा एक असमंजस का अँधेरा साया बना रहता है मेरे अक्स के आस-पास जो कभी चैन से जीने नहीं देता | फिर दिल में ख्याल उठता है अरे! यही तो मैं चाहता था...कि कुछ लिखूं, अपने दिल के अरमानो को नीले आकाश में उड़ान भरने दूं, उन अधूरे जज्बातों का पूरा करूँ जो कहीं दिल के किसी अँधेरे कोनो में दबे हुए कुचले से पड़े है, उन अधूरी हसरतों को पूरा करूँ जो हर रोज़ मुझमे जन्म लेती है परन्तु यह क्रूर समाज की अभिलाषाए उनका गला घोट देती है | 

कल रात ज़ेहन में एक सवाल उठा, क्या लिखना जरूरी है? बातें बोल कर भी तो बताई जा सकती है या फिर किसी और माध्यम से फिर लिखना ही क्यूँ? बहुत देर अपने-आप से गुफ्तुगू करने के बाद मैंने ये जाना कि लिखने से आपके लफ्ज़ ता-उम्र कलम-बध हो जाते है, वो लफ्ज़ सारी ज़िन्दगी उसी रूहानियत से जिंदा रहते है जैसे वो उस रोज़ लिखे गए थे |

लिखना मेरे हिसाब से कोई बड़ी बात नहीं है, हर कोई कभी न कभी, किसी न किसी उम्र में, कुछ न कुछ तो लिखता ही है परन्तु कुछ अलग लिखने का अपना ही कुछ मज़ा होता है | लिखने के लिए बस अच्छी सोच, शब्दों का सही चयन और लिखने कि स्वेच्छा होनी चाहिए और शायद इसी से ही अच्छे लेखक का जन्म होता है | हम कुछ भी माँ के पेट से नहीं सीख कर नहीं आते, यह तो उस अच्छा-बुरा वातावरण का असर होता है जो हमारे आस-पास होता है | हम वही लिखते है जो हम देखते, सुनते या समझते है क्यूंकि वो हमारे ज़ेहन में रोम कर चुका होता है और न चाहते हुए भी हमारे लफ़्ज़ों में झलक जाती है | भाई! लिखने से तो मैंने एक ही चीज सीखी है और वो यह है कि मुझे मेरे लफ़्ज़ों कि ज़िन्दगी मिल जाती है, मुझे मेरे लफ़्ज़ों के लिए दायरा नहीं खोजना पड़ता, एक निर्मल बहाव के साथ शब्द बहते चले जाते है और लोग कहते है कि कुछ लिखा है |

मैं इस लिए नहीं लिखता कि मैं चर्चित होना चाहता हूँ या फिर इसलिए नहीं लिखता कि मेरे अन्दर का लेखक मुझे कचोटता रहता है यदपि वो लेखक हमेशा मुझे अन्दर से कचोटते रहता है कि उठ खड़ा हो, खोल दिल के उन बंद दरवाजों को जो सदियों पहले तूने बंद कर दिए थे | परन्तु मैं तो इसलिए लिखता हूँ क्यूंकि मुझे लिखना अच्छा लगता है | वैसे चर्चित होना किसे अच्छा नहीं लगता, किसे उपलब्धियां अच्छी नहीं लगती या फिर किसे अच्छा नहीं लगता कि उसकी लगन और मेहनत को सराहे | लिखने से मेरे जीवन में एक नया अध्याय जुड़ा है, अब मैं अच्छी सोच के साथ जीने लगा हूँ, हर चेहरे को किताबों कि तरह पढ़ने लगा हूँ, नयी सोच और शब्दों का दाएरा बढ़ने लगा है और सबसे अहम् लोगो के छुपे चेहरों के पन्ने पलटने लगा हूँ | वो कहते है न कि वक़्त के साथ-साथ तजुर्बा भी बढता जाता है और लोगो को पहचानने की छमता भी | लिखने से मेरी ज़िन्दगी को एक नया आयाम मिला है, एक नया एहसास मिला है जिसे जीना इतना हसीन है जितना जन्नत में बैठे खुदा से मिलना या फिर उस भगवान से मिलना जिसे हम बरसों से कैलाश, अमरनाथ या फिर उन ऊँची दुर्गम पहाड़ियों पर खोजते आ रहे है जिन पर चढ़ना सामान्यता कठिन है | चलिए! मैंने तो अपनी पसंद का रास्ता चुन लिया है अब आप की बारी है | कुछ वक़्त अपनी कलम को भी दीजिये ताकि कल उम्र-दराज़ होने पर आप यह सोच कर दुखी न हो कि आपने उस लेखक को अपने अंदर ही दम तोड़ने दिया अगर चाहते तो उससे दो घड़ी साँसे दे सकते थे | तो चलिए उस सुहाने शब्दों के सफ़र पर जिस पर कल्पनाओं की हसीन दुनिया बसी है, निकल पड़िए उस रूहानियत के सफ़र पर जिस पर लफ़्ज़ों की हुकूमत है | ले आईये उस दबे हुए लेखक को जो अन्दर ही अन्दर तड़प रहा है बहार निकलने के लिए, लीजिये कलम और लिख दीजिये कुछ नया सा....

शुक्रिया !!

Wednesday, May 18, 2011

रिश्ते...कुछ अधूरे से !!

रिश्ते, कुछ कहने के, कुछ सुनने के परन्तु ये होते बड़े अजीब है | कभी हमे अपना बना लेते है और कभी अपने होकर भी सपना बना देते है | इंसान अपनी ही दुविधाओ में घिरा रहता है परन्तु फिर भी उससे उस एक शक्श की तलाश रहती है जिससे वो अपना कह सके, जिससे वो अपने सुख और दुःख बाट सके | इन रिश्तों के कई नाम होते है | कभी वो रिश्ता माँ-बाप का होता है, कभी भाई-बहन का, कभी मित्रों, सहपाठियों और सहकर्मचारियों का तो कभी प्रेमी-प्रेमिका का | परन्तु कुछ रिश्तें ऐसे भी होते है जिनके कुछ नाम नहीं होते पर फिर भी वो अपने-आप में परिपूर्ण होते है | रिश्तों के बीच कभी दूरियां नहीं होते परन्तु वक़्त कभी-कभी दो रिश्तों के बीच इतने फासले बड़ा देता है कि वो दूरियां ज़िन्दगी भर ख़त्म नहीं होने पाती | 

माँ और बेटा का रिश्ता बेहद अजीब होता है, जाने कैसे माँ अपने बेटा का हर दर्द, हर तकलीफ भाप लेती है और शायद इसी वजह से यह रिश्ता दुनिया का सबसे अजीब परन्तु सबसे मजबूत रिश्ता होता है | माँ के कई रूप हो सकते है, कभी माँ माँ होती है, कभी जीवन-शिक्षिका, कभी पथ-प्रदर्शक तो कभी दोस्त | जरूरी नहीं कि माँ माँ ही हो, माँ कोई भी हो सकती है | माँ बड़ी बहन, शिक्षिका, वो दोस्त जो आपको हर पथ पर अच्छाई और बुराई का पाठ दे हो सकती है या फिर  वो कहीं दूर बैठी महिला हो सकती है जिसने अनजाने में आपसे बात करते में कुछ अगूंड जीवन-सच का आभास कराया हो | लोग कहते है कि रिश्तों को बड़ा संभाल कर रखना पड़ता है क्यूंकि कभी-कभी न चाहते हुए भी हम उन रिश्तों से कहीं दूर निकल जाते है और वापस लौटने का कोई संभव रास्ता नहीं मिलता | 

इंसान की हसरतें इतनी सारी होती है कि इस छोटी सी ज़िन्दगी में वो उसे पूरा नहीं कर पता परन्तु फिर भी वो भरसक-प्रयासब्ध रहता है | वह हर कोशिश में लगा रहता है कि वह अपनी रोज़मर्रा ज़िन्दगी के साथ-साथ उन रिश्तों को भी वक़्त दे सके जिनसे वो दूर होता चला जा रहा है | कहते है कि वक़्त किसी के लिए नहीं रुकता और जो रुक गया वो वक़्त नहीं और इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए मानुष पल-पल आगे बढता जा रहा है | 

परन्तु कुछ रिश्ते अधूरे ही अच्छे लगते है क्यूंकि जब वो पूरे होते है तो धीरे-धीरे उन रिश्तों में खटास आने लगती है, बातों के पहलु भी कम होने लगते है, छोटी-छोटी बातों पर झगड़े, गुस्सा और बुरा मान लेना होने लगता है और धीरे-धीरे रिश्तों में वो अनचाही दरार आ जाती है जो मिटाए नहीं मिटती | कुछ रिश्ते अनचाहे में झूट कि नीव पर बन जाते है और एक वक़्त ऐसा भी आता है कि आप चाह कर भी सच बता नहीं पाते, तो अगर आप कहीं कोई भी रिश्ते कि नीव रखने जा रहे है तो उससे सच के उस छोटे से पत्थर के टुकड़े पर रख कर बनाये जो आजीवन आपके साथ रहे क्यूंकि सच कड़वा जरूर है परन्तु सच तमाम ज़िन्दगी आपके साथ रहेगा |