Tuesday, November 15, 2011

कलम व्यथा...

कलम उठा यूँ लिखने बैठा, जाने किस-किस सोच में,
क्या लिखूं, क्या न लिखूं, के ताने-बाने में बुन कर रह गया,
हाल-इ-हसरत, कलम-इ-जुर्रत, लफ़्ज़ों में क्यूँ घुल गया,
क्या लिखूं, क्या न लिखूं, के ताने-बाने में बुन कर रह गया...

लफ़्ज़ों की दुनिया बहुत ही अजीब होती है, एक छोटी सी पंगति से राजा को रंक और रंक को राजा बना देती है | आज दुनिया ने कलम की शक्ति को तो पहचाना है परन्तु हम कभी-कभी उसके दुष्परिणामों को भूल जाते है | अपितु, लिखने के अभ्यास से यह तो साफ़ है कि आपके पास दिन प्रतिदिन शब्दों का शब्दकोष बढ़ता जाता है और साथ ही साथ बोलने और लिखने कि कला में भी निखार होता है |

आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक मैं लिखने के मर्म को लेकर क्यूँ बैठ गया | हुआ यूँ, कि कुछ दिनों पहले अपने अहम् पर प्रश्नचिन्ह लगाते कुछ सवाल मेरे सामने आ खड़े हुए और यह सत्य है कि जब इंसान के अहम् के ऊपर बात आती है तभी मनोस्तिथि में सजगता भी आती है | खैर, सवाल था कि लिखने से किसी को क्या मिलता है ? मेरे लिए यह सवाल बड़ा ही रोचक था क्यूंकि इस प्रश्न का उत्तर तो मैं खुद भी खोज रहा था और रहा हूँ, हालांकि अभी भी कुछ यथाचित उत्तर तो नहीं है मेरे पास परन्तु एक अनायास ख़ुशी है जो शायद मुझे लिखने के बाद आती है | इस स्तिथि का आभास होते ही मैंने अचानक मिलने वाली खुशियों का कारण खोजना शुरू कर दिया और एक रात अचानक ही ख़ुशी का एक अजीब एहसास हुआ | यह एहसास अछूता नहीं था मुझसे क्यूंकि यह मेरा अपना एहसास था जो मुझे शायद लिखने पर मिलता है | वो कहते है न:


लिखत-लिखत कलम घिसे, गहरी होत दवात,
मन तरसे नए शब्दों को, बुझे न लिखन की प्यास,
कह अभिनव, नव-नूतन बनके, लिख दो दिल की आस,
मन तरसे नए शब्दों को, बुझे न लिखन की प्यास...

इंसान ख़ुशी के लिए ही इतनी जद्दोजहत करता है, अगर ख़ुशी का कोई ठिकाना ही न हो तो इंसान के परिश्रम का क्या फ़ायदा और मेरे हिसाब से कार्य वही करना चाहिए जिसमे ख़ुशी मिले | तो, मैंने तो अपनी ख़ुशी का स्त्रोत खोज लिया, आप क्या सोच रहे है... 

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