आज के इस क्रियाकाल्पिक युग में लोग मानो अंधे से होते जा रहे है | सभी एक अंधी भेड़-चाल में नाक की सीध में किसी अनजाने सुख के पीछे भागे चले जा रहे है | ऐसा लगता है मानो वो वो नहीं कोई और बन कर जी रहे हो परन्तु सत्य तो यह है कि इस आधुनिकरण युग में इंसान भी मशीन की तरह ही होता चला जा रहा है | उसके अंदर का सारा प्यार, स्नेह, प्रेम, मोहोब्बत सब मरते से चले जा रहे है | मुझे कभी-कभी लगता है कि क्या इंसान सच में अपनी ज़िन्दगी से निराश और हताश है या फिर उसके अन्दर का वो मोम-मानव मर गया है जो कभी उसके दिल में जिंदा हुआ करता था? मैंने यह जानने के लिए कई चेहरों का अध्धयन किया जो कि आज कल मुझे बेहद प्रिय सा कार्य लगने लगा है | लोगो के चेहरों के अध्धयन से मुझे अपने अन्दर आकस्मित आने वाली त्रुटियों का एहसास होने लगा जिसका शायद मैं सुधार कर सकता हूँ | मुझे लोगो के चेहरों पर चढ़े झूठे नकाबों को पढ़ने की कला मिली जिससे मैंने तो छल-कपट से बचना सीख लिया परन्तु अभी भी लगता है कि यह ज्ञान अधूरा है |
ख़ैर छोड़िये! आज लोगो के दिलों में फासले बढ़ने लगे है, हर रिश्ता धीरे-धीरे नापाक सा होता जा रहा है | कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मानो कृष्ण के मुखारविंद से निकली गीता के शब्द मानो सत्य में परिवर्तित होते जा रहे हो, "तुम अकेले ही आये थे और अकेले ही जाओगे" परन्तु लोगो ने शायद इससे गलत चरितार्थ कर लिया है | हर रिश्ता धीरे-धीरे बेजान होता जा रहा है, लोगो में प्यार और स्नेह कम होता जा रहा है | हर रिश्ते में खटास पड़ती जा रही है और कोई भी आगे बढ़ इस बढ़ती खायी को पाटने की कोशिश नहीं करता क्यूंकि अहम् आत्मसम्मान की जगह ले लेता है और फिर धीरे-धीरे रिश्तों के कच्चे धागे टूटने लगते है |
"बद से बदतर होता जा रहा इंसान, अपना अक्स खोता जा रहा इंसान,
जुर्म और खून से सराबोर होती जा रही, एक-एक रग,
जुर्म और काल की, काली कूप में बढते उसके पग,
न माँ, न बाप, न बहन, न भाई अपना,
बस पैसे की भूख, और खून का सपना जीता जा रहा इंसान,
हर रिश्ते को शर्म-सार करता जा रहा इंसान,
बुराई के पथ पर बढता जा रहा इंसान...
देख इस दुर्दशा को, दिल मेरा भी जोर रोया,
पर सुधार की गुंजाईश न देख, दर्द अपना दिल में खोया,
बन के पथिक, भटकता रहा दर-ब-दर,
मातम भी न मना सका, ऐसे ये बे-जोर रोया..."
यह कुछ अधूरी पंग्तिया शायद उस अगूड़ सत्य को बयान करती है जो शायद धीरे-धीरे लोभ और लालच में डूबा इंसान भूलता जा रहा है | हर रोज़ एक नयी खबर में एक नए रिश्ते को नापाक होते देखने के आदि हो गए है हम, कहीं भाई भाई के खून का प्यासा है तो कहीं बहन भाई की हवास का शिकार हो रही है, कोई माँ अपने बच्चो को बेच दे रही है तो कहीं बाप बेटी का गला दबाने को तैयार है | ऐसा लगता है कि मानो कोई किसी का सगा है ही नहीं दुनिया में, सब बस अपने लोभ और लालच कि हवास को अग्नि दिए जा रहे है | कभी-कभी तो मुझे अपने मनुष्य होने पर भी घिन्न आने लगती है | क्या सोचा होगा उसने तराशते वक़्त कि आगे चल कर उसका यह नायाब करिश्मा अपने ही रिश्तो को शर्मसार करेगा? क्या अपने ही रिश्तों से खून कि होलिया खेलेगा?
मेरे लफ़्ज़ों में शायद चुभन होगी या फिर मेरा ज़मीर अभी भी जिंदा है स्नेह और अपनेपन के साथ जो आज भी मुझे लोगो से बड़े स्नेह और आत्मीयता से मिलाता है जैसे मानो मेरे अपने ही हो क्यूंकि मैंने यह सीखा है कि द्वेष दिल में रखने से ज़हर ही बनता है, अमृत नहीं | तो चलिए, उठिए और दोनों हाँथ फैला कर खुले दिल से हर उस शक्श का स्वागत कीजिये जो भी आपके आस-पास है | उठिए और सबकी जिंदगी में भर दीजिये स्नेह, प्यार और अपनेपन का रंग और फिर देखिये ज़िन्दगी कितनी हसीन है |
धन्यवाद!!!
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