Sunday, November 27, 2011

"मैं" अहेम या बगावत...

जल रहा हूँ अंगारों सा क्यूँ मैं, सांस लेना भी दुश्वार है,
जलकर राख भी नहीं होता यह जिस्म, जाने क्यूँ जीने की प्यास है,
अरमानों का क़त्ल रोज़ करता हूँ, तिल-तिल करके रोज़ मरता हूँ,
फिर भी ज़िन्दगी क्यूँ, यूँ मुझ पर मेहरबान है,
हर दम, एक अजब सी आग, जो घुटन बनने लगी है साँसों में,
मैं जानता हूँ, गल रहा है मेरा अहेम, फिर भी अहंकार की प्यास है,
झुंझलाहट, चिल्लाहट, जो दबी पड़ी थी, मेरे खून के कतरों में,
क्यूँ उबाल सी बन, बरसने लगी है मेरे लफ़्ज़ों में कहीं,
जुल्म और सितम, अब क्यूँ गवारा नहीं,
झूठ के बिना, क्यूँ सभी बेसहारा यहीं,
अरमानों का क़त्ल रोज़ करता हूँ, तिल-तिल कर रोज़ मरता हूँ,
फिर भी ज़िन्दगी क्यूँ, यूँ मुझ पर मेहरबान है,
जल रहा हूँ अंगारों सा, क्यूँ सांस लेना भी दुश्वार है,
जलकर राख भी नहीं होता जिस्म, जाने क्यूँ इसे जीने की प्यास है...

एक आग की तपिश सी महसूस होती है अन्दर, जो उबाल बन रगों में दौड़ने लगी है परन्तु मैं यह नहीं जानता की यह आग अहेम की है या बगावत की ? जानता हूँ इस आग से गलने लगा है मेरा शरीर परन्तु फिर भी इसे संभाले हुए चल रहा हूँ और अपने ही अहेम में कहीं जल रहा हूँ ।

खुद अपने ही लफ्ज़ अजनबी से लगने लगते है, तो कभी मेरे अन्दर गलते-मरते "मैं" को सहारा देते है परन्तु मैं यह नहीं जानता की यह सही है या गलत । हम इस छोटी सी ज़िन्दगी में कई किरदार निभाते है परन्तु अपने कर्त्तव्य को निभाते-निभाते हम अपने अन्दर के "मैं" को भूल जाते है । पर वो नहीं भूलता, वो पलता रहता है अन्दर-अन्दर, जलता रहता है और एक दिन खुद अपने आप को भस्म कर लेता है, अंत कर देता है खुद की ही वक्तित्व का या फिर कभी रौद्र रूप धारण कर सृष्टि-संघार कर देता है । 

तो जानिये अपने अन्दर के उन्ही सवालों को और पूछिए खुद से सवाल की क्या आप अपने लिए जी रहे है? उठाइए उन सवालों का पुलिंदा और खोजिये अपने "मैं" को!!!

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