दिल्ली दिलवालों की!!
भारत के कोनो-कोनो से आ कर बसाने वाले लोगो से मिलकर बनी ये दिल्ली सभी का खुले दिल से स्वागत करती है | यहाँ रहनेवाला कहीं उत्तर प्रदेश से तो फिर कहीं बिहार से, कहीं केरल से है तो कहीं सिक्किम या नागालैंड से और यह सभी लोग मिलकर बनाते है "दिल्ली" | देश की राजधानी होने के साथ-साथ, राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र दिल्ली फिर भी दिल्ली ही है | पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में, पंजाबी तड़के की खुशबूं के बीच महकती दिल्ली | दिल्ली की धड़कन मेट्रो और लो-फ्लोर बसों के बीच बसी दिल्ली अपने ही रंग का जलवा बिखेरती रहती है | देश का केंद्र होने के नाते चर्चाओ और सुर्ख़ियों में बसी दिल्ली सभी के लिए एक सी रहती है और इन्ही में कहीं बसे हुए है दिल्ली के ऑटो वाले |
दिल्ली की आधी जान संभाले यह ऑटो वाले, दिल्ली के इस कोने से उस कोनो तक लोगो की अवाह्जाही का साधन तो बनते है परन्तु कभी-कभी अपनी कुटिल व कपिट व्यवहार से लोगों की परेशानी का सबब भी बन जाते है | सवारियों से जबरन पैसे ऐठना या मीटर से न चलना तो माने उनका जन्मसिद्ध अधिकार है परन्तु इस मनमानी में राहगीरों को जो नुक्सान पहुंचा देते है, उसका मुझे बड़ा दुःख होता है यदपि मुझसे कभी किसी ऑटो वाले ने बेमानी नहीं की पर फिर भी हर रोज़ एक नयी घटना सुनने को मिल ही जाती है | हालाकि सभी ऑटो वाले गलत नहीं होते, उसी तरह जैसे एक तालाब की सारी मछलिया गन्दी नहीं होती परन्तु कुछ गन्दी मछलियों की वजह से बाकी मछलियों को भी गंदिगी का शिकार होना पड़ता है और ऐसी ही गन्दी मछलियों के बीच में से कुछ अच्छी मछलियाँ इस कोशिश में लगी रहती है कि यह गन्दी से भरा तालाब थोडा साफ़ हो जाये | ऐसे ही मछलियों में से एक मछली से आज मेरी मुलाकात हुई |
बस की प्रतीक्षा में खड़े, गर्मी और लू के थपेड़ों को सहते हुए मैं और मेरे मित्र ने एक ऑटो वाले को हाँथ दिया | उस अधेड़ उम्र के ऑटो ड्राईवर ने मीटर डाउन करते हुए पुछा "कहाँ जायेंगे साहब?", अपने कार्यालय का पता बताते हुए न जाने क्यूँ मैंने उनसे गुफ्तगू शुरू कर दी | वो कहते है न शब्दों के तो पर लगे होते है और बातें तो बातों में से निकलती चली जाती है | इस आधे घंटे के छोटे से सफ़र में बातों के पड़ाव दर पड़ाव चलते रहे और उसी दोरान मुझे कुछ पलों के लिए ऑटो वालों की ज़िन्दगी से रूबरू होने का मौका मिला |
लगभग 40 - 45 के अशोक सिंह जी ऑटो चलने के साथ-साथ 3 बच्चों के पिता है | ऑटो-चालक होने के बावजूद उन्होंने अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और ईमानदारी का ज्ञान दिया है | अपने बच्चों को MBA और शिक्षिका के पद पर देख शायद वह फूले नहीं समाते होंगे और जाने-अनजाने उन्होंने मुझे भी ईमानदारी का पाठ पढ़ाया | उनके पुराने किस्सों में कई बार अपने ईमानदारी का विवरण दिया | आज सुबह के ही एक ताज़े किस्से में उन्होंने एक सवारी को ईमानदारी का ज्ञान देते हुए कहा की "मैडम जी, अगर मैं यह पैसे रख भी लूँगा तो यह पैसे मुझे पचेंगे नहीं, कहीं न कहीं यह बेमानी का पैसा निकल ही जायेगा" | यदपि अगर वो चाहते तो वो 400 रुपये रख सकते थे और उस औरत (सवारी) को दिए बिना ही जा सकते थे परन्तु फिर भी उन्होंने उससे उसके हिसाब के पैसे वापस कर मुझे उस ज्ञान का पाठ कराया जिससे शायद मैं भूलता जा रहा था अपितु आज के इस मतलबखोर वक़्त में हम ईमानदारी का पाठ भूलते जा रहे है और कभी-कभी तो बेमानी करने में भी गुरेज़ नहीं करते |
मैं अशोक जी जैसे उन तमाम लोगों को शुक्रगुज़ार हूँ जो जाने-अनजाने में मुझे उस अगूड़ ज्ञान से भरे सागर में ले जाते है और मुझे रूबरू होने देते है उन जाने-पहचाने सच से जो मैं शायद वक़्त की इस तेज़ रफ़्तार में भूलता जा रहा हूँ, उस ज्ञान का पाठ कराते है जिससे जानते-पहचानते भी मैं अनदेखा कर देता हूँ और उनकी इन्ही वजह और कोशिशों से मुझे कुछ और लफ़्ज़ों से खेलने का मौका मिल जाता है जिसके लिए तह-दिल से शुक्रिया |
सधन्यवाद !!!
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