Thursday, May 1, 2014

इंतज़ार...

बड़ा अकेला सा महसूस कर रहा था वो, शायद रात कुछ ज्यादा गहरी थी । करवटें और बेचैनियाँ लिए वो पलटता रहा पहर-दर-पर उस सुबह के इंतज़ार में या यूँ कहूँ उस आवाज़ के इंतज़ार में जिसे वो उस पल सुनना चाहता था । यही तो था उसका दिन या कहूँ रात...पर उसकी आवाज़ नहीं आई । शायद…

मायूस सी बैठी थी रात,
जैसे खुद बुझ कर आई हो ।

अजीब सा मौसम बना हुआ था अन्दर, शायद लफ़्ज़ों का घमासान हो रहा था, बेचैनी बढ़ती चली जा रही थी करवटें बदलती सुइयों की तरह और वो उस उद्देढ्बुन में खोया जा रहा था कि क्या हसरतें पालना गलत है? 

कौन चलता है यहाँ उम्र बसर होने तक,
हर कोई है मुसाफ़िर तन्हा राह का ।

ख़ैर! अश्क़ों का काफ़िला भी अजीब होता है, कहते है जहाँ दबाने की आरज़ू होती है वहीँ फूट पड़ता है ।

रातें गुज़री है ये भी गुज़र जायेगी,
यादों का कुछ रश्क़ लिए ।

No comments:

Post a Comment