Sunday, April 27, 2014

सफ़र...

बस में मिला था वो चेहरे पर एक झूठी मुस्कान लिए, मानो बहुत सा गम छुपाये बैठा हो । मैं सरकते-सरकते उसके पास पहुंचा, चेहरे के बदलते भाव मानो कुछ कहना चाह रहे हो । पर वो शायद जवाब नहीं देना चाहता या जवाब था ही नहीं उसके पास । उसकी लम्बी-लम्बी सांसें मुझे अनयास ही उसके ओर खींच रही थी मानो जैसे लड़ रहा हो ज़िन्दगी के लिए । मैंने पानी बढ़ाते हुए पुछा ठीक हो? कहने लगा हाँ! बस सांस की तकलीफ है, इस शहर में घुआ थोड़ा ज्यादा है पर उसकी पथराई आँखें कुछ और ही कह रही थी मानो जैसे रो लेना चाहती हो और वो...

छुपा बैठा मुझसे नज़रें वो ऐसे,
जैसे बरसों का रो कर आया हो ।

बार-बार आँखों के कोने साफ़ करता और मेरे देखने पर कहता कि आँख में कचरा चला गया है । क्या रोने या आँख में कचरा होने में अंतर नहीं? मेरे दिल में उठते सवाल मुझे कचोट रहे थे और मैं उसके चेहरे की ओर बस एक टक देखे जा रहा था । मैं बार-बार उसकी ओर देखता और वो मुझसे नज़रें चुरा लेता, थोड़ा हाफता और फिर आँखों के कोने पोछता जैसे सुबुक रहा हो अन्दर ही अन्दर । मुझसे रहा नहीं गया, पूछ लिया और वो पथराई आँखों से मुझे देखता रहा । मैं सवाल न कर सका और वो बिना कहे सब जवाब दे गया । जाते-जाते उसने बस इतना सा सवाल किया "क्या गलतियों की वजह मैं ही हूँ?" और मैं उसकी भीगी आँखों को बस देखता रहा । आँखें पथराई थी और शायद कन्धा खोज रही थी बस बिना रुके रो लेने के लिए और पलट कर कहता गया...

कितना लम्बा है ये सफ़र,
चंद कन्धों की ख़ातिर ।

और मैं बस उसको जाते देखता रहा बेबस लाचार सा ।

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