कल मिला था वो, बहुत परेशान नज़र आ रहा था मानो जैसे कुछ खो गया हो । मैंने रोका और पूछना चाहा कि क्या हुआ? क्यूँ इतने अधीर से हो कर भटक रहे हो? कुछ बोला नहीं बस एक तक मेरी आँखों में देखा और नज़रें चुराये दौड़ गया । तब तक भागता रहा जब तक मेरी नज़रों से वो ओझिल नहीं हो गया, पर खुद से कैसे भागता? भाग तो उससे रहा था जो उसके अन्दर दबा हुआ था । मैंने कोशिश की उसे पकड़ने की, समझाने की, परन्तु नहीं माना और दूर तक चलता चला गया और जाते-जाते कहता गया कि इतनी दूर चले जाना चाहता हूँ जहाँ "मैं" सुनाई न दूं । मैं सोच में था और उसने पलट कर मुझे देखा और आँखों ही आँखों में पुछा कि क्या कोई जगह है ऐसी? और मैं कोई जवाब न दे सका ।
मैंने देखने की, उससे खोजने की बहुत कोशिश की पर शायद वो बहुत दूर निकल चुका था और अपने पीछे एक खालीपन का एहसास छोड़ गया था, वो एहसास जो मुझे अन्दर ही अन्दर खाए जा रहा था । मैं हताश हो घूमने लगा, मैं परेशान था कि कहीं मैं भी उसके जैसा न हो जाऊं । क्या करूँगा मैं अगर मेरे सामने भी ऐसा वक़्त आया तो? मैं तो किसी को जानता तक नहीं बस उसके सिवा । और "वो", वो मुझसे उस कल के लिए अनजान थी जो न जाने कब आएगा । शायद उसका भी यही हाल होगा जो वो भाग रहा था, खुद से ही दौड़ रहा था पागल ।
पर, कब तक दौड़ता? एक दिन तो उसे सच को मानना ही था कि वो अकेले रह गया सिर्फ इसलिए की वो चल नहीं सका । और मैं इस उधेड़बुन में था कि "क्या मेरा कल यही है"? बेचैन हो उठा, तड़पने लगा, ऐसा लगने लगा मानो किसी ने छुरी को तपा कर धीरे से कलेजे में उतार दिया हो और धीरे धीरे क़त्ल करते हुए मुझ पर हँस रहा हो । मैंने रोकना चाहा पर न वो रुका और न ही मैं रुक पाया ।
और...
क़त्ल मेरे अरमानों का हुआ कुछ इस कदर,
कि मैं हँसता भी रहा और रो न सका ।
बे-मुराद सी मोहोब्बत भी जालिम निकली,
मैं करके भी सह न सका ॥
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