Thursday, October 24, 2013

चेहरा बोलता है...

एक सवाल अपनी मुठ्ठी में लिए घूम रहा था वो, चेहरे पर जवाबों की झुर्रिया नज़र पड़ने लगी थी । मेरे सामने से गुज़रा तो नज़र पड़ी, मुठ्ठी बंधे छुपाये-छुपाये चला जा रहा था । मैंने पूछना चाहा तो देखने लगा मेरी ओर टकटकी लगाये । मेरे चेहरे की जिज्ञासा पढ़ वो मेरे पास आया और धीरे से सवाल पुछा कि क्या मैं अच्छा नहीं दिखता?
गहरा सन्नाटा था । जवाब बहुत थे मेरे पास कहने को, पर उसको शायद झूठी तस्सल्ली ही लगती । बहुत खूबसूरत नहीं दिखता था वो, दुबला-पतला सरल सा दिखता था बिना किसी लाग-लपेट के अपनी ही धुन में रहने वाला सा था वो पर कहीं न कहीं दिल का हीरा था, हँसमुख और मिलनसार मानो अभी अपनी बातों से दिल जीत लेगा । पर, आज हताश नज़र आ रहा था, मैंने पूछना चाहा पर कुछ बोला नहीं, बस जाते-जाते हलके से कह गया...

दर्द उसने दिया जो मेरा अपना था,
वर्ना गैरों का कहाँ फुरसत मुझे चोट पहुंचाने की ।

और, मैं हैरान था उसकी चोट करती बातों से, क्या चेहरा सच में इतना मायने रखता है? या साफ़ दिल का इस शहर में कोई मोल नहीं? और मैं अपनी उधेड़बुन में उसको दूर जाते हुए देखता रहा ।

दिखता है चेहरा ही बाज़ार में,
यहाँ इश्क़ में दिल नहीं दिखा करते ।

Sunday, October 20, 2013

कूड़े वाली की लड़की…

उसकी माँ उसकी अधजली लाश लिए बिलख-बिलख कर रो रही थी, बस्ती में मातम सा छाया था, लोग तमाश-बीन हो एक दुसरे की निगाहों में सच तलाश रहे थे और मैं इस सोच में एक टक देख रहा था कि उस बच्ची की गलती क्या था? क्या खूबसूरती कलंक है? या यौवंता आज सामाजिक अभिशाप बन गयी है? अभी कुछ रोज़ पहले ही देखा था जब वो मुस्कुराती हुई घर में कूड़ा उठाने आई थी, चेहरे पर सादगी लिए वो मुस्कुराता चेहरा अपनी ही दुनिया की लालिमा लिए चमक रहा था, महज़ सोलह (16) की रही होगी, मद्धम सी आवाज़ में नमस्ते लिए वो धीरे से आई और कूड़ा लिए बाहर की तरफ दौड़ी चल दी । मैं लॉन में बैठा अखबार में जाने कौन से सच में तलाश में खोया हुआ था और उस लड़की पर नज़र पड़ी । खूबसूरती उसके यौवन को अलग ही निखार दे रही थी और मेरे ज़ेहन में उसके मायने आके जा रहे थे पर खूबसूरती घर या जात देख कर तो जन्म नहीं लेती ।

मैं अपने ही ख़्यालों  में था कि चलो अच्छा है कम से कम ये किसी अच्छे घर में तो जाएगी, जहाँ जायेगी अपनी खूबसूरती की तरह रंग बिखेरेगी और उन्ही बनते ख़्यालों में ही खोया रहा । तभी किसी का धक्का लगा और मेरा भर्म टूटा, देखा तो याद आया कि वो छोटी लड़की तो रही ही नहीं, जल गयी अपना रंग-रूप त्याग कर । कानों में खुस्पुसाहत पड़ रही थी और मन में एक अजीब सा करुणा-भाव था । मैं जानता नहीं था परन्तु फिर भी एक व्योग था, दर्द था । कानों में पड़ती आवाजें मुझसे कह रही थी उस लड़की की दास्ताँ । पड़ोस में खड़ी एक औरत ने दूसरी से कहा कि देखो बेचारी को, अभी तो जवान भी नहीं हुई थी की जला बैठी खुद को । तंग हो गयी थी रोज़-रोज़ के तानो से, छेड़-छाड़ से । कहती थी कूड़ा उठवाने के बहाने कोई पीछे हाथ लगाता तो कोई आगे और तो कोई घर के अन्दर तक खीच ले जाता, थक चुकी थी छेड़-छाड़ से, उसका अपना ही रंग उसका दुश्मन बन बैठा था तो सुबह काम से आने के बाद जला बैठी खुद को, क्या हुआ था कोई नहीं जानता बस उसको रोते आते देखा था और ये कहते-कहते वो औरत रोने लगी ।

मैं हताश था सामाजिक परिवर्तन और गन्दी मानसिकता को ले कर । क्यूँ यौवन, रंग-रूप और चेहरा खुद का ही दुश्मन बन बैठा है और कैसे कुंठित समाज में जीने लगा हूँ मैं जहाँ बस जिस्म की भूख लगी है भेड़ियों को । अख़बार लबालब है ऐसी ख़बरों से जहाँ सिर्फ़ औरतों पर शोषण है और कहीं न कहीं हम भी भागीदार बनते जा रहे है इसी गन्दी मानसिकता के ।

मुझसे रहा न गया तो चल दिया अपने उधेड़बुन के ख़्याल लिए और सोचता रहा क्या खूबसूरत होना गुनाह है? या किसी ग़रीब का खूबसूरत होना गुनाह है?

नारी की भी अलग कहानी, जो समझे जो जानी,
नर्लज समाज, जली सभ्यता, जिस्म की भूख बस मानी,
नोच-खसोट लूट रहे अस्मिता, जो भुगते वो जानी,
रौद्र रूप की भेट जरूरी, संघारक त्यों मानी ।