भीगी आँखों में उसने कलम उठाया और कोरे पन्ने भरने लगा, पर लिखता क्या यही सोच-सोच कर बस आँखें नम करता रहा । पर क्यूँ उदास था वो? यही तो वो हमेशा से चाहता था कि कोई उसे प्यार करे पर यह जरूरी तो नहीं की वो भी उसे उतना ही प्यार करे जितना की वो करने लगा है । बड़ी दुविधा में, उलझे ख़्यालों में बस कुछ-कुछ लिखता और मिटा देता पर उसको शायद यह ही समझ में नहीं आया था कि इंसान चाहता वही है जो मिलता नहीं ।
मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था और करता भी क्या यह तो इंसानी स्वभाव है, कोई अपनी मर्ज़ी से तो भावुक नहीं होता न, यह तो आत्मीय गुण है किसी में कम तो किसी में ज्यादा । खैर, मैंने उसे टोका तो वो मेरी तरफ पलटा । सुर्ख़ गीली आँखें झांक रही थी और मैं उनमे अपने सवालों के जवाब ढूँढ रहा था कि क्या किसी से इतना जुड़ा होना गलत है?
मेरे ज़हन में सवाल घर कर रहे थे और उसकी आँखों का प्यार डर का रूप ले रहा था और उसने वो भीगे पन्ने फाड़ दिए । एक टक देखता रहा और फिर भीगी आँखों से लिखने लगा कुछ-कुछ...
दर्द तो मुझे मेरे अपने ही देते है,
कोई ग़ैर तो बस चोट करने की सोचता है ।