Friday, September 20, 2013

कोरे पन्ने...

भीगी आँखों में उसने कलम उठाया और कोरे पन्ने भरने लगा, पर लिखता क्या यही सोच-सोच कर बस आँखें नम करता रहा । पर क्यूँ उदास था वो? यही तो वो हमेशा से चाहता था कि कोई उसे प्यार करे पर यह जरूरी तो नहीं की वो भी उसे उतना ही प्यार करे जितना की वो करने लगा है । बड़ी दुविधा में, उलझे ख़्यालों में बस कुछ-कुछ लिखता और मिटा देता पर उसको शायद यह ही समझ में नहीं आया था कि इंसान चाहता वही है जो मिलता नहीं ।

मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था और करता भी क्या यह तो इंसानी स्वभाव है, कोई अपनी मर्ज़ी से तो भावुक नहीं होता न, यह तो आत्मीय गुण है किसी में कम तो किसी में ज्यादा । खैर, मैंने उसे टोका तो वो मेरी तरफ पलटा । सुर्ख़ गीली आँखें झांक रही थी और मैं उनमे अपने सवालों के जवाब ढूँढ रहा था कि क्या किसी से इतना जुड़ा होना गलत है?

मेरे ज़हन में सवाल घर कर रहे थे और उसकी आँखों का प्यार डर का रूप ले रहा था और उसने वो भीगे पन्ने फाड़ दिए । एक टक देखता रहा और फिर भीगी आँखों से लिखने लगा कुछ-कुछ...

दर्द तो मुझे मेरे अपने ही देते है,
कोई ग़ैर तो बस चोट करने की सोचता है ।

Thursday, September 19, 2013

अँधे की लाठी...

बड़ी बेचैनी में उठा वो और लड़खड़ाते हुए रेल के गेट पर जाने लगा और कहने लगा मेरा फ़ोन, मेरा फ़ोन । मैं पलटा उसकी ओर तो उसकी सफ़ेद छड़ी और सहारा खोजते हाँथ नज़र आये । दोस्तों ने संभालते हुए उससे पुछा क्या हुआ तो वो बोला कि वो लड़का कहाँ गया जो मुझे छोड़ने आया था, उसके पास मेरा फ़ोन है । सब बोले की वो तो चलती रेल में से उतर गया, क्या तुम्हारा फ़ोन उसके पास था ?

सवाल बड़ा मामूली था परन्तु मैंने एक भरोसा टूटते हुए देखा । मुझसे रहा न गया और मैंने उसको पुछा तुमने अपना फ़ोन उसके हाँथ में क्यूँ दिया था वो तो फ़ोन ले कर उतर गया और अब तो रेल भी चल चुकी है । वो बोल भैया, उसको किसी से बात करनी थी और मुझको बोल की मैं यही स्टेशन पर काम करता हूँ इसी वजह से मैंने उसको बात करने के लिए फ़ोन दे दिया था और वो मेरा फ़ोन ले कर उतर गया, क्या आप उससे कॉल लगा कर कह दोगे की मेरा फ़ोन लौटा दे ? मैंने उसको संभालते हुए कहा कि देखो भाई, वो फ़ोन उसने अब तक बंद भी कर दिया होगा अब तो मुश्किल ही मिलेगा तो वो बोल की मुझे रोज़ मिलता था और कहता था की मैं यहीं स्टेशन पर काम करता हूँ ।

मैं दिलासे के सिवा कुछ भी नहीं दे सकता था इसलिए उसको समझाते हुए बिठा दिया और थोड़ी देर बाद बात आई गयी हो गयी । सवारियां अपने यथा-स्थान पर वापस बैठ गयी जैसे अक्सर तमाशा ख़त्म होने के बाद होता है, दोस्त लोग वापस अपनी मस्ती में लग गए, मैं भी वहीँ था परन्तु मन अस्थिर था, सवाल कौंध रहे थे, क्या भरोसा करना इतना महंगा है या इंसान की भूख इतनी बढ़ गयी है की वो अँधों को भी नहीं छोड़ता ? मैंने पढ़ा था कि लूटने वाला लाश को भी नंगा कर सब लूट ले जाता है पर यकीन नहीं था, लगता था कहानियों का हिस्सा है, अपितु आज सामने देख यकीन हुआ कि कितना गिर गया है इंसान, क्यूँ नहीं सोचता कि क्यूँ कर रहा है, क्या कर रहा है बस कर रहा है ।

और वक़्त हैरान-परेशान सा देख रहा है ।

लूट रहे है नंगे तन से एक-एक ग़ोश्त,
ऐसी भी क्या मुफ़लिसी छाई शहर में ।