Thursday, July 28, 2011

आस्था, धर्म या अंधी भेड़चाल ???

आस्तिक और नास्तिक में बस एक धूमिल रेखा का ही फर्क होता है और वही एक रेखा इस पूरे संसार को दो भागो में बाटे हुए है | हालाकि आस्था का पलड़ा हमेशा से ही भारी रहा है है अपितु भौतिक सोच ने भी दुनिया का देखने का नजरिया बदला है | हम आस्तिक है इसके प्रमाण के लिए हम न जाने क्या-क्या करते है परन्तु हम भूल जाते है की आस्था श्रद्धा और निष्ठा से प्रतीक होती है न की दिखावे से | मंदिरों में बढ़ती भीड़ और चढ़ावा इस बात का प्रमाण है कि हम श्रद्धा में नहीं भेड़चाल में भागे चले जा रहे है | अगर हम पिछले कुछ दिनों के अख़बारों के पाने छाने तो इसके प्रतक्ष प्रमाण हमारे सामने है | मंदिरों में छुपे खजाने और बाबाओ के पास से मिलती धन-कुबेर राशियाँ, उस अंधी भेड़चाल का सबूत देती है जिसके चलते मंदिरों तक आस्था के व्यवसाय चलने लगे है | पंडितों, संतो और महान्तो की बढ़ती संपत्ति के बीच हम उन सुवर्ण-युगी संतो को भूलते जा रहे है जो दान-दक्षिणा पर जिया करते थे |

अभी हाल में ही मुझे गोवर्धन-पर्वत यात्रा का अवसर मिला | यह मेरा पहला अवसर था जिसमे मैं २१ किलोमीटर की अदभुत यात्रा पर पदल ही चल पड़ा हालाकि यह एक अनूठा एवम अदभुत अनुभव था परन्तु उसमे भी मुझे धर्म के नाम पर भागती अंधी भीड़ दिखाई देने लगी | लोगों की श्रद्धा लगता है ख़त्म सी हो गयी है, मानो श्रद्धा का सीधा संबंध शाररिक, मानसिक और व्यावसायिक संतुष्टि से ही रह गया है | पंडितों और महान्तो की भी श्रद्धा, आराधना व्यवसाय का रूप लेने लगी है | अब तो मंदिरों में तिलाकभिशेक भी १० रुपए के चढ़ावे के बाद होने लगे है और यदि आप दान-दक्षिणा नहीं करते है तो आप मोक्ष की भागीदार नहीं है...क्या हम इसी धर्म और कर्म-काण्ड की गुहार लगते फिरते है ? क्या यही हमारी आस्था रह गयी है या फिर हम भी उस भेड़चाल के मारे हो गए है ?

मैं यह नहीं कहता कि हम सभी इस अंधी भेड़चाल के शिकार है परन्तु हम में से अधिकतर लोग इसी झूटी श्रद्धा की तरफ क्रमबद्ध हो गए है | ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा और दान-दक्षिणा आज-कल का फैशन बन गया है, लोग बस झूटी शान के लिए भागे जा रहे है और उस पत्थर रुपी भगवन में बसी आस्था को भूले जा रहे है जोकि वास्विकता में होनी चाहिए | मंदिरों में भी धीरे-धीरे आस्था और श्रद्धा का व्यवसाय बढ़ता चला जा रहा है और शायद कुछ समय पशचात सिर्फ ढोंग और दिखावा ही रह जायेगा |

तो अपनी आस्था का सौदा ऐसे न होने दे, आस्था और ढोंग के बीच के फर्क को पहचाने और दिखावे से बचे | उन कर्म-कांडों से बचे जो हम अब तक खुद की जिद्द से या फिर किसी के दबाव में करते आ रहे है | भगवन यह नहीं कहते कि मुझे रोज़ पूजो अपितु जब भी पूजो बस दिल से पूजो | तो चलिए, अपनी सच्ची श्रद्धा की ओर न की ढोंग की ओर... |